स्त्रीवादी जीत

Aggarwalmona
2 min readMay 17, 2024

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Picture Credits: Pinterest

आज मेरे सारे दुख बगल में रख कर हमेशा की तरह एक किताब पढ़ रही थी। सत्य व्यास की बनारस टॉकीज कि दोस्त का फोन आया। फोन स्क्रीन पर उसका नाम पढ़ कर मैं समझ गई की वह राजधानी में आया हुआ हैं। मुलाकात का कार्यक्रम बना, जगह तय हुई और एक घंटे के भीतर हम एक दूसरे के सामने थे। हौज खास के एक अच्छे महंगे कैफै में हम गए। यहाँ मैं बात दूँ की इस दोस्त के साथ मेरी इनटलेक्चूअल बातें ज्यादा होती हैं।

महिलाओं में बाय नेचर ही ज्यादा सहनशीलता होती हैं
मेरे दोस्त के यह शब्द सुन कर, स्त्रीवादी, मेरे शब्द कुछ इस प्रकार थे

“नहीं, समाज महिलाओं को मजबूर करता हैं, ज्यादा सहनशीलता रखने को। जैसे आज से दस साल पहले मैं बगावती थी। शायद हर लड़की उस उम्र में बगावती होती हैं। मुझे भी हर लड़की की तरह गुस्सा आता था सामाजिक भेदभाव देख कर। मैं बगावत करती थी अपने माता-पिता के साथ हर बात पर। रोती भी थी। पर क्या उसका कोई असर हुआ? नहीं। समझदारी मुझमें तब भी थी। पर उसके बाद में शांत हो गई। यह शांत इंसान समाज ने बनाया हैं। शांत और समझदार। आज मैं उसी झूठी समझदारी के साथ राजधानी में अकेली रह रही हूँ, नौकरी कर रही हूँ। पर हम कॉलेज में साथ थे ना। तुझे नहीं लगता उस समय ज्यादा चिल्लाने वाली तेरी यह दोस्त, नाचा कूदा करती थी। उसे तब भी करिअर की परवाह थी, पर क्या वह चुप थी? इतनी शांत और सहनशील थी?

मेरे दोस्त ने कुछ पल सोचा, मेरी बातों को समाज के साथ तोला और एक चुपी के साथ सिर हीला दिया। उस चुपी में मैंने स्त्रीवाद की जीत देखी।

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